प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
अथवा
चन्द्रगुप्त के केन्द्रीय प्रशासन की संक्षिप्त समीक्षा कीजिए।
उत्तर-
चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त मौर्य न केवल एक महान विजेता ही था, अपितु एक उच्चकोटि का प्रशासक भी था। वह युद्ध के समय जितना स्फूर्तिवान था, शांति-काल में उससे कहीं अधिक कर्मठ था। उसके नेतृत्व में भारतवर्ष ने सर्वप्रथम राजनीतिक केन्द्रीकरण के दर्शन किए थे तथा चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया। उसने जिस विस्तृत शासन व्यवस्था की नींव डाली उसके अनेक तत्व यद्यपि ईरानी और यूनानी शासन से ग्रहण किए गए थे, तथापि वह पर्याप्त अंशों में अद्भुत एवं मौलिक ही थी। इस शासन- व्यवस्था का चरम लक्ष्य प्रत्येक परिस्थिति में जनता का हित साधन करना था।
चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा मेगस्थनीज की इण्डिका से महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। रुद्रदामन का गिरनार शिलालेख पश्चिमी भारत में मौर्य प्रशासन के अध्ययन के लिए बहुमूल्य सामग्रियाँ प्रदान करता है। यहाँ हम इन्हीं स्रोतों के आधार पर उसकी शासन- व्यवस्था की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे।
सम्राट - चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। प्रथम बार कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ही हम राज्य की सुस्पष्ट परिभाषा पाते हैं जहाँ वह इसे सात प्रकृतियों की समष्टि कहता है। इनमें सम्राट की स्थिति 'कूटस्थनीय' होती थी। राजा में सभी अधिकार एवं शक्तियां निहित थी। सम्राट अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास नहीं करता था, फिर भी वह ईश्वर का प्रिय पात्र समझा जाता था। वह सैनिक, न्यायिक, वैधानिक एवं कार्यकारी मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था। वह सेना का सबसे बड़ा सेनापति, न्याय का प्रधान न्यायाधीश, कानूनों का निर्माण तथा धर्म प्रवर्तक माना जाता था। शास्त्र तथा राजा के न्याय में विरोध होने पर अन्तिम को ही प्रमाण माना जाता था। वह साम्राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति करता था और इस प्रकार वह प्रशासन का प्रमुख स्रोत था। उसकी दिनचर्या अत्यन्त कठोर थी। मेगस्थनीज हमें बताता है कि वह दिन में नहीं सोता था अपितु निर्णय देने या अन्य सार्वजनिक कार्यों के लिए पूरे दिन राजसभा में बैठा रहता था और प्रजा के प्रतिवेदनों को सुना करता था। इस कार्य में वह किसी प्रकार का अवरोध सहन नहीं कर सकता था। जब उसका शरीर आबनूस के मुगदरों से दबाया जाता था अथवा उसके शरीर के मालिश का समय रहता था तब भी वह प्रजा की शिकायतों को सुना करता था।
अमात्य, मन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् - सम्राट अपने कार्यों में अमात्यों, मन्त्रियों तथा अधिकारियों से सहायता प्राप्त करता था। अमात्य या सचिव एक सामान्य संज्ञा थी जिससे राज्य के सभी प्रमुख पदाधिकारियों का बोध होता था। यूनानी लेखक इन्हें 'सभासद तथा निर्धारक' कहते हैं। ये सार्वजनिक कार्यों में सम्राट की सहायता करते थे। उनकी संख्या यद्यपि कम थी तथापि वे अत्यंत प्रभावशाली थे। प्रशासन के प्रमुख पदाधिकारियों का चयन उन्हीं के परामर्श से किया जाता था। परन्तु वे सभी मन्त्री नहीं होते थे। वह अपने में से जो सभी प्रकार के आकर्षणों से परे हुआ करते थे, मन्त्री नियुक्त करता था। ये मन्त्री एक छोटी उपसमिति के सदस्य थे जिसे 'मन्त्रिणः' कहा जाता था। इसमें कुल तीन या चार सदस्य होते थे। अत्यधिक (जिनके बारे में तुरंत निर्णय लेना हो) विषयों में 'मन्त्रिणः' से परामर्श की जाती थी। सम्भवतः इनमें युवराज, प्रधानमंत्री, सेनापति तथा सन्निधाता (कोषाध्यक्ष) आदि सम्मिलित थे।
'मन्त्रिणः' के अतिरिक्त एक नियमित मन्त्रिपरिषद् भी होती थी जिसकी सदस्य संख्या अवश्य ही काफी बड़ी होगी क्योंकि कौटिल्य के अनुसार बड़ी मन्त्रिपरिषद् रखना राजा के हित में होता है और इससे उसकी 'मन्त्रशक्ति' बढ़ती है। इस प्रसंग में वह एक सहस्त्र सदस्यों वाली इन्द्र की मन्त्रिपरिषद् का उल्लेख करता है जिसके कारण उन्हें 'सहस्त्राक्ष' कहा जाता था। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। आवश्यक कार्यों के विषय में निर्णय के लिए इसकी सभा बुलाई जाती थी तथा बहुमत से निर्णय लिये जाते थे किन्तु सम्राट को यह अधिकार था कि वह बहुमत के निर्णय की उपेक्षा कर अल्पमत के निर्णय को ही स्वीकार करे, यदि ऐसा करना राष्ट्र के हित में हो। मंत्रिपरिषद् तथा मन्त्रिणः का क्या सम्बन्ध था, यह निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता परन्तु ऐसा लगता है कि मन्त्रिणः के सदस्य मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होते थे। मन्त्रिणः के सदस्यों को 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। राजा प्रायः मन्त्रिणः तथा मन्त्रिपरिषद् की ही परामर्श से शासन कार्य करता था।
केन्द्रीय अधिकारी-तन्त्र - अर्थशास्त्र में केन्द्रीय प्रशासन का अत्यन्त विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बँटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को 'तीर्थ' कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों के प्रधान पदाधिकारियों का उल्लेख हुआ है-
(i) मन्त्री और पुरोहित
(ii) समाहर्ता
(iii) सन्निधाता
(iv) सेनापति
(v) युवराज
(vi) प्रदेष्टा
(vii) नायक
(viii) कर्मान्तिक
(ix) व्यवहारिक
(x) मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष
(xi) दण्डपाल
(xii) अन्तपाल
(xiii) दुर्गपाल
(xiv) नागरक
(xv) प्रशासक
(xvi) दौवारिक
(xvii) अन्तर्वशिक तथा
(xviii) आटविक
प्रान्तीय शासन - चन्द्रगुप्त मौर्य का विशाल साम्राज्य अवश्य ही प्रांतों में विभाजित रहा होगा, परन्तु उसके साम्राज्य के प्रांतों की निश्चित संख्या हमें ज्ञात नहीं है। उसके पौत्र अशोक के अभिलेखों से हमें उसके निम्नलिखित प्रांतों के नाम ज्ञात होते हैं-
(1) उद्दीच्य (उत्तरापथ ) - इसमें पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
(2) अवन्तिट्ठ - इस प्रदेश की राजधानी उज्जयिनी थी।
(3) कलिंग -यहाँ की राजधानी तोसलि थी।
(4) दक्षिणापथ - इसमें दक्षिणी भारत का प्रदेश शामिल था जिसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी। के०एस० आयंगर इस स्थान की पहचान रायचूर जिले में स्थित आधुनिक कनकगिरि से करते हैं।
(5) प्राच्य या प्रासी - इससे तात्पर्य पूर्वी भारत से है। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
मण्डल, जिला तथा नगर प्रशासन - प्रत्येक प्रांत में कई मण्डल होते थे जिनकी समता हम आधुनिक कमिशनरियों से स्थापित कर सकते हैं। अर्थशास्त्र में उल्लिखित 'प्रदेष्टा' नामक अधिकारी मण्डल का प्रधान होता था। अशोक के लेखों में इसी को 'प्रादेशिक' कहा गया है। वह अपने मण्डल के अधीन ' विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्यों का निरीक्षण करता था तथा समाहर्ता के प्रति उत्तरदायी होता था। मण्डल का विभाजन जिलों में हुआ था जिन्हें 'आहार' या 'विषय' कहा जाता था। जिले के नीचे 'स्थानीय ' होता था जिसमें 800 ग्राम थे। स्थानीय के अंतर्गत दो 'द्रोण मुख' थे। प्रत्येक के चार-चार सौ ग्राम होते थे। द्रोणमुख के नीचे खार्वीटक के अंतर्गत 20 संग्रहण होते थे। प्रत्येक खार्वीटक में दो सौ ग्राम तथा प्रत्येक संग्रहण में दस ग्राम थे। इन संस्थाओं के प्रधान, न्यायिक, कार्यकारी तथा राजस्व सम्बन्धी अधिकारों का उपभोग करते थे तथा युक्त नामक पदाधिकारियों की सहायता से अपना कार्य करते थे। संग्रहण का प्रधान अधिकारी 'गोप' कहा जाता था। मेगस्थनीज जिले के अधिकारियों को एग्रोनोमोई कहता है। वह विभिन्न वर्गों के कर्मचारियों का उल्लेख करता है जो जिले के विभिन्न विभागों का शासन चलाते थे। भूमि तथा सिंचाई, कृषि, वन, काष्ठ उद्योग, धातु शालाओं, खानों तथा सड़कों आदि का प्रबन्ध करने के लिए अलग-अलग पदाधिकारी थे.
ग्राम- प्रशासन - ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होता था। ग्राम का अध्यक्ष 'ग्रामणी' होता था। वह ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होता था तथा वेतन भोगी कर्मचारी नहीं था। अर्थशास्त्र 'ग्रामवृद्ध परिषद्' का उल्लेख करता है। इसमें ग्राम के प्रमुख व्यक्ति होते थे। जो ग्राम शासन में ग्रामणी की मदद करते थे। राज्य सामान्यतः ग्रामों के शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। ग्रामणी को ग्राम की भूमि का प्रबन्ध करने तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करने का अधिकार था। ग्राम वृद्धों की परिषद् न्याय का भी कार्य करती थी। यह ग्रामों के छोटे-मोटे विवादों का फैसला करती तथा जुर्माना आदि लगा सकती थी। ग्रामणी कृषकों से भूमिकर एकत्रकर राजकीय कोषागार में जमा करता था। ग्राम सभा के कार्यालय का कार्य 'गोप' नामक कर्मचारी किया करते थे। वे ग्राम के घरों तथा निवासियों का ठीक ढंग से विवरण सुरक्षित रखते थे और उनसे प्राप्त होने वाले करों का भी हिसाब रखते थे
चन्द्रगुप्त मौर्य-कालीन ग्राम शासन के विषय में सोहगौरा (गोरखपुर) तथा महास्थान ( बंगला देश के बोगरा जिले में स्थित ) के लेखों से कुछ सूचनायें प्राप्त होती हैं। इनमें जनता की सुरक्षा के लिये बनवाये गए कोष्ठागारों का उल्लेख मिलता है। अर्थशास्त्र में भी कोष्ठागार निर्माण की चर्चा है। इससे लगता है कि कर वसूली अन्नों के रूप में भी की जाती थी तथा इन्हें कोष्ठागारों में संचित किया जाता था। इस अन्न को सूखा जैसी दैवी आपत्तियों के समय आपदीय जनता के बीच वितरित किया जाता था।
न्याय-व्यवस्था - मौर्यों के एकतन्त्रात्मक शासन में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई की अंतिम अदालत था। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण साम्राज्य में अनेक अदालतें होती थी। न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के थे-
(i) धर्मस्थीय
(ii) कण्टक-शोधन।
इन न्यायालयों का अन्तर बहुत स्पष्ट नहीं है, फिर भी हम इन्हें सामान्यतः दीवानी तथा फौजदारी न्यायालय कह सकते हैं। इन दोनों में तीन-तीन न्यायाधीश एक साथ बैठकर न्याय का कार्य करते थे। विदेशियों के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष प्रकार की अदालतें संगठित की गई थी।
दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे। सामान्य अपराधों में आर्थिक जुर्माने होते थे। कौटिल्य तीन प्रकार के अर्थदण्डों का उल्लेख करता था।
(1) पूर्ण साहस दण्ड - यह 48 से लेकर 96 पण तक होता था।
(2) मध्य साहस दण्ड - यह 200 से 500 पण तक होता था।
(9) उत्तम साहस दण्ड - यह 500 से 1000 पण तक होता था।
इसके अतिरिक्त कैद, कोड़े मारना अंग-भंग तथा मृत्यु दण्ड की सजा दी जाती थी। कारीगरों की अंग क्षति करने पर मृत्यु दण्ड दिया जाता था। इसी प्रकार का दण्ड करों की चोरी करने वालों तथा राजकीय धन का घोटाला करने वालों को भी मिलता था। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि युक्त नामक अधिकारी प्रायः धन का अपहरण करते थे। एक स्थान पर उल्लिखित है कि 'जिस प्रकार जल में विचरण करती मछलियों को जल पीते हुए कोई नहीं देख सकता उसी प्रकार आर्थिक पद पर नियुक्त युक्तों को धन का अपहरण करने पर कोई जान नहीं सकता है। ब्राह्मण विद्रोहियों को जल में डुबो कर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। जिस अपराध में कोई प्रमाण नहीं मिलता था वहाँ जल, अग्नि तथा विष आदि द्वारा दिव्यं परिक्षाएँ ली जाती थी। मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि दण्डों की कठोरता के कारण अपराध प्रायः नहीं होते थे। लोग अपने घरों को असुरक्षित छोड़ देते थे तथा वे कोई लिखित समझौता नहीं करते थे। कानून की शरण लोग बहुत कम लेते थे। एक बार जब वह चन्द्रगुप्त के सैनिक शिविर में गया तो उसे पता चला कि सम्पूर्ण सेना में चोरी की गयी वस्तुओं का मूल्य 200 ट्रेक्कम से भी कम था।
गुप्तचर विभाग - चन्द्रगुप्त मौर्य के विस्तृत प्रशासन की सफलता बहुत कुछ अंशों में कुशल गुप्तचर विभाग पर आधारित थी। यह विभाग एक पृथक अमात्य के अधीन रखा गया था जिसे 'महामात्यापसर्प' कहा जाता था। गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में 'गूढ़ पुरुष' कहा गया है। इस विभाग में वे व्यक्ति नियुक्त किए जाते थे जिनके चरित्र की शुद्धता एवं निष्ठा की परीक्षा सब प्रकार से कर ली जाती थी- उपाधिभिः शुद्धामात्यवर्गो गूढ़पुरुषानुत्पादयेत्। पूरे साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल - सा बिछा हुआ था। वे अनेक प्रकार के छद्मवेषों में भ्रमण किया करते थे तथा दिन-प्रतिदिन के कार्यों की सूचना सम्राट को दिया करते थे। वे सभी प्रकार के पदाधिकारियों की गतिविधियों पर दृष्टि रखते थे। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि 'शत्रु, मित्र, मध्यम तथा उदासीन सब प्रकार के राजाओं एवं 18 तीर्थों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति की जानी चाहिए।' यूनानी लेखकों ने उन्हें निरीक्षक तथा ओवरसियर्स कहा है। स्ट्रैबो के अनुसार इन दोनों पदों पर अत्यन्त योग्य तथा विश्वसनीय व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है- संस्थाः अर्थात् एक ही स्थान पर रखने वाले तथा संचराः अर्थात् प्रत्येक स्थानों में भ्रमण करने वाले। पुरुषों के अतिरिक्त चतुर स्त्रियाँ भी गुप्तचरी करती थी। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि वेश्यायें भी गुप्तचरों के पदों पर नियुक्त की जाती थीं। यदि कोई गुप्तचर गलत सूचना देता था तो उसे दण्डित किया जाता था तथा पद से मुक्त कर दिया जाता था।
भूमि तथा राजस्व - चन्द्रगुप्त की सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ वित्तीय आधार पर अवलम्बित थी। साम्राज्य के समस्त आर्थिक क्रिया-कलापों पर सरकार का कठोर नियंत्रण होता था। कृषि की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया गया तथा अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया गया। भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार होता था। राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी 'सीताध्यक्ष' था जो दासों, कर्मकारों तथा बन्दियों की सहायता से खेती करवाता था। कुछ राजकीय भूमि खेती करने के लिएं कृषकों को भी दे दी जाती थी। राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूमि कर था। यह सिद्धान्ततः उपज का 1/6 होता था, परन्तु व्यवहार में आर्थिक स्थिति के अनुसर कुछ बढ़ा दिया जाता था। अर्थशास्त्र तथा यूनानी प्रमाणों से पता चलता है कि मौर्य शासन में कृषि की आय पर लोगों को 25% तक कर देना पड़ता था। ऐसी भूमि से तात्पर्य राजकीय भूमि से है। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि यदि कोई किसान अपने हल-बैल, उपकरण, बीज आदि लगाकर राजकीय भूमि पर खेती करता था तो उसे उपज का आधा भाग प्राप्त होता था। इसके अतिरिक्त किसानों के पास व्यक्तिगत भूमि भी होती थी। ऐसे लोग अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देते थे। भूमिकर को 'भाग' कहा जाता था। राजकीय भूमि से प्राप्त आय को 'सीता' कहा गया है। कृषकों को सिंचाई कर भी देना पड़ता था। नगरों में जल एवं भवन कर लगाये जाते थे। राजकीय आय के अन्य प्रमुख साधन राजा की व्यक्तिगत भूमि से होने वाली आय सीमा शुल्क, चुंगी, बिक्री कर, व्यापारिक मार्गों, सड़कों तथा घाटों पर लगने वाले कर, अनुज्ञा शुल्क तथा आर्थिक दण्ड के रूप में प्राप्त हुए जुर्माने आदि थे। समाहर्ता नामक पदाधिकारी करों को एकत्र करने तथा आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने के लिए उत्तरदायी होता था। 'स्थानिक' तथा 'गोप' नामक पदाधिकारी प्रांतों में करों को एकत्र करते थे। वस्तुतः प्रथम बार मौर्य काल में ही कर प्रणाली की विस्तृत रूप-रेखा प्रस्तुत की गयी जिसका विवरण हमें अर्थशास्त्र में मिलता है। इसका उद्देश्य अधिकाधिक वस्तुओं पर कर लगाकर सरकार की आवश्यकताओं को पूरा करना था।
सेना का प्रबन्ध - चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक अत्यन्त विशाल सेना थी। इसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार अश्वारोही, 9 हजार हाथी तथा संभवतः 800 रथ थे। सैनिकों की संख्या समाज में कृषकों के बाद सबसे अधिक थी। सैनिकों को नगद वेतन मिलता था तथा उसके अनुशासन एवं प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता था। सैनिकों का काम केवल युद्ध करना था। शांति के काल में वे आनन्द एवं आराम का जीवन बिताते थे। युद्ध सम्बन्धी समस्त सामग्रियाँ राज्य की ओर से प्रदान की जाती थी। विजय के उपलक्ष्य में उन्हें पुरस्कार भी दिए जाते थे। सैनिकों का वेतन इतना अधिक था कि वे बड़े आराम के साथ अपना तथा अपने आश्रितों का निर्वाह कर सकते थे। मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि इस सेना का प्रबन्ध छः समितियों द्वारा होता था। प्रत्येक समिति में पांच-पांच सदस्य होते थे। इनका कार्य अलग-अलग था। प्रथम समिति जल सेना की व्यवस्था करती थी। दूसरी समिति सामग्री यातायात एवं रसद की व्यवस्था करती थी, तीसरी पैदल सैनिकों की देख-रेख करती थी, चौथी अश्वारोहियों के सेना की व्यवस्था करती थी, पाँचवीं गज सेना की व्यवस्था तथा छठी समिति रथों के सेना की व्यवस्था करती थी। सेनापति युद्ध विभाग का प्रधान अधिकारी होता था। सेनापति का पद बड़ा ही महत्वपूर्ण होता था और वह 'मन्त्रिणः' का सदस्य था। उसे 48000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था। सेना के चारों अंगों (अश्व, गज़, रथ, पैदल ) के अलग-अलग अध्यक्ष होते थे जो सेनापति की अधीनता में कार्य करते थे। इन्हें 8000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। युद्ध क्षेत्र में सेना का संचालन करने वाला अधिकारी 'नायक' कहा जाता था। सेनापति के पश्चात् नायक का पद ही सैनिक संगठन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था जिसे 12000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था। मौर्यों के पास शक्तिशाली नौ सेना भी थी। अर्थशास्त्र में 'नवाध्यक्ष' नामक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो युद्धपोतों के अतिरिक्त व्यापारिक पोतों का भी अध्यक्ष होता था। सीमांत प्रदेशों की रक्षा सुदृढ़ दुर्गों द्वारा की जाती थी। 'अन्तपाल' नामक पदाधिकारी दुर्गों के अध्यक्ष होते थे।
लोकोपकारिता के कार्य - चन्द्रगुप्त मौर्य यद्यपि निरंकुश शासक था तथापि उसने अपनी प्रजा के भौतिक जीवन को सुखी तथा सुविधापूर्ण बनाने के उद्देश्य से अनेक उपाए किए। यातायात की सुविधा के लिए विशाल राजमार्गों का निर्माण किया गया। पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा के लिए चन्द्रगुप्त के सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने सुदर्शन नामक इतिहास प्रसिद्ध झील का निर्माण करवाया। यह गिरनार ( जूनागढ़) के समीप रैवतक तथा ऊर्जयत पर्वतों के जलस्रोतों के ऊपर कृतिम बाँध बनाकर निर्मित की गई थी। कौटिल्य सिंचाई के लिए बांध बनाने की आवश्यकता पर बल देता है लगता है इसी से प्रेरित होकर इस झील का निर्माण हुआ। इससे नहरें निकाल कर सिंचाई की जाती थी। अशोक के समय में उसके राज्यपाल तुषास्प ने झील से पानी के निकास के लिए मार्ग बनवाए थे। इससे इसकी उपयोगिता बढ़ गयी। इस झील को हम मौर्यकालीन अभियंत्रण कला का उत्कृष्ट नमूना कह सकते हैं। इसके अतिरिक्त नागरिकों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के लिए अनेक प्रकार के औषधालयों तथा विद्यालयों की स्थापना भी राज्य की ओर से करवायी गयी थी।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था लोकोपकारी थी। सरकार के विषय में उसकी धारणा पितृपरक थी। स्वयं निरंकुश होते हुए भी व्यवहार में वह धर्म, लोकाचार तथा न्याय के अनुसार ही शासन करता था। उसे निरन्तर प्रजाहित की चिन्ता बनी रहती थी। जनता को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा दासों को स्वामियों के अत्याचारों से बचाने के लिए व्यापक उपाय किए गये थे। राज्य अनाथों, विधवाओं, मृत सैनिकों एवं कर्मचारियों के भरण-पोषण का दायित्व वहन करता था। उसके गुरु एवं प्रधानमंत्री कौटिल्य ने जिस विस्तृत प्रशासन की रूपरेखा प्रस्तुत की थी उसमें प्रजाहित को सर्वोच्च स्थान दिया गया और यही इस शासन की सबसे बड़ी विशेषता है। चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनादर्श अर्थशास्त्र की इन पंक्तियों से स्पष्टतः प्रकट होता है। "प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में उसका हित है। अपना प्रिय करने में राजा का हित नहीं होता, बल्कि जो प्रजा के लिए हो, उसे करने में राजा का हित होता है।" इस प्रकार चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था ने एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ किया।
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- प्रश्न- वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? भारतीय दर्शन में इसका क्या महत्व है?
- प्रश्न- जाति प्रथा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जाति व्यवस्था के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए। इसने भारतीय
- प्रश्न- ऋग्वैदिक और उत्तर वैदिक काल की भारतीय जाति प्रथा के लक्षणों की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन काल में शूद्रों की स्थिति निर्धारित कीजिए।
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- प्रश्न- प्राचीन भारतीय समाज में नारी की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- स्त्री के धन सम्बन्धी अधिकारों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- वैदिक काल में नारी की स्थिति का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- वैदिक काल में सती-प्रथा पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वैदिक में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- ऋग्वैदिक विदुषी स्त्रियों के बारे में आप क्या जानते हैं?
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- प्रश्न- महाभारत काल के राजतन्त्र की व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- राजा का महत्व बताइए।
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- प्रश्न- कौटिल्य के अनुसार राज्य के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
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- प्रश्न- गुप्त प्रशासन के प्रमुख अभिकरणों का उल्लेख कीजिए।
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- प्रश्न- मौर्यों के ग्रामीण प्रशासन पर एक लेख लिखिए।
- प्रश्न- मौर्य युगीन नगर प्रशासन पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- मौर्य काल की सिंचाई व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- वैदिक काल में सिंचाई के साधनों एवं उपायों पर एक टिप्पणी लिखिए।
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- प्रश्न- वैदिककालीन श्रेणी संगठन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा की तुलना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- "विभिन्न भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों की जड़ें उपनिषद में हैं।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।